Jan 25, 2018

पॉपकॉर्न खाते और पेप्सी पीते हुए फ़िल्म का देखना

बहुत दिनों बाद किसी थिएटर में फिल्म देखने गया। हॉल में जाते ही नजारा कुछ और था। करीब 250 लोगों के बैठने वाली जगह मुश्किल से बीस लोग बैठे थे। कुर्सी पर बैठते ही दिमाग में सवाल उठा कि बीस लोगों के लिए एक शो दिखाने का मतलब क्या है? बृहस्पतिवार का दिन होने की वजह से 100 रुपये का टिकट 75 रुपये में मिला था। लेकिन इसे और भी सस्ता किया जा सकता था। जाहिर सी बात है कि यदि टिकट सस्ता होता तो और अधिक लोग फिल्म देखने आते। ऐसे में थिएटर मालिक को फायदा ही होना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया? मुझे अपने गांव की एक कहावत याद आई। सरि-सुर जाई, गोत न खाई। गोत के खाए, अकारथ जाई…॥  मतलब यह है कि कोई भी चीज बेकार चली जाए, लेकिन उसे अपने इस्तेमाल न कर पाएं, क्योंकि मना जाता है कि यदि अपने इस्तेमाल करेंगे तो वह बेकार चली जाएगी…।
जाहिर है कि यह कहावत मानव ईर्षा पर आधारित है। हालांकि इसे भी संस्कृति ही कहा जाएगा लेकिन समाज ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। ऐसे लोगों को हमेशा हेय दृष्टि से ही देखा गया। आज यदि वही कहावत कारोबार पर लागू हो रही है तो देखने में वह नव-उदारवाद से उपजी अपसंस्कृति लगती है। लेकिन इसके पीछे पूरा अर्थशास्त्र काम कर रहा है। हालांकि भावना ईर्षा वाली ही है कि वंचितों तक मनोरंजन को नहीं पहुंचने देना है। लेकिन मामला मुनाफे से जुड़ा है। यदि आम आदमी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने लगे तो समाज का प्रभु वर्ग नाराज हो जाएगा। मल्टीप्लेक्स में गंदगी फैल जाएगी। फूहड़ता हावी हो जाएगी। लोग हॉल में चिल्लाएंगे और सीटियां भी बजाएंगे जो प्रभुवर्ग को मंजूर नहीं होगा। यदि हाल में ऐसा होने लगा तो प्रभु वर्ग वहां नहीं जाएगा। जाहिर है कि मल्टी प्लेक्स के मालिक प्रभु वर्ग को नाराज नहीं करना चाहते। प्रभु वर्ग ही उनका एटीएम है। यही वर्ग है जो आज की कई फिल्मों की कमाई करोड़ों में पहुंचा देता है। आम वर्ग के लिए खास वर्ग को कौन नाराज करना चाहेगा?
जो फिल्म मैं देख रहा था वह थी भूतनाथ रिटर्न्स। नाम से लग रहा था कि फिल्म बच्चों के लिए बनाई गई होगी। यही वजह थी बेटे ने जिद की उसे देखने के लिए लेकिन वह थिएटर में जाकर निराश हुआ। इसमें उसके मनोरंजन के लिए कुछ नहीं था। मुंबई की मलिन बस्ती धरावी के गरीब और गंदगी भरी जगहों में वह अपने लिए मनोरंजन तलाश रहा था। उस मासूम को कहां मालूम की पर्दे पर दिखने वाली गरीबी और गंदगी आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए व्यक्ति को देशभक्त बना देती है। राष्ट्रभक्ति के जोश में वह पॉपकार्न को कई बार जोर से चबाता है और देश की दुर्दशा पर उसके आंखों से निकले आंसू पेप्सी और कोक के गिलास में भी गिर जाते हैं।
 फिल्म में चरित्र बेशक भूत का है लेकिन उसकी थीम लोकतंत्र में वोट की अहमियत बताने की है। फिल्म का एक ही संदेश है कि हर आदमी को वोट जरूर देना चाहिए। वोट देने से आदमी की समस्याओं का निदान हो जाएगा। यह फिल्मी तरीके से बताया गया है। अंत में फिल्म में भावुकता डाली गई है। अखरोट को भाऊ का आदमी घायल कर देता है। वह आईसीयू में है तो भूतनाथ उसकी जिंदगी मांगने भूतलोक चला जाता है। वहां से उसे जिंदगी इस शर्त पर मिलती है कि भूतनाथ चुनाव जीतेगा तो अखरोट बच जाएगा। फिल्म है तो लोग वोट भी भूतनाथ को देते हैं। भाऊ हारता है और अखरोट को जीवन मिल जाता है। पर्दे का नायक जीत जाता है। लोगों के वोट से उसकी जिंदगी बच जाती है लेकिन असल जिंदगी में ऐसा होता है क्या? फिल्म देखने के बाद यह नहीं लगता कि यदि कोई वोट दे तो उसकी जिंदगी में बदलाव कैसे आएगा? एक आम आदमी की समस्या का निदान कैसे हो जाएगा? यदि वोट देने से ही किसी समस्या का हल हो जाता तो जो लोग वोट देते हैं उनके पास कोई समस्या होती ही नहीं? मतदान यदि समस्याओं के निदान का एक कारक मात्र भी होता तो लोग दौड़ते हुए वोट देने जाते लेकिन यह तो घर में बैठकर चर्चा करने और सिनेमा हाल में पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए चिंतन और चर्चा का विषय बनकर रह गया है।
 फिल्म के मध्यांतर में खाने-पीने की चीजें बेचने वाले आ गए। पिज्जा, बर्गर, मोमो, पेस्टी, पॉपकार्न और पेप्सी-कोका आदि। खाने की कोई भी वस्तु 80 रुपये से कम की नहीं थी। किसी सामान्य जगह 12 रुपये में मिलने वाला पेय पदार्थ यहां 25 रुपये में मिल रहा था। थिएटर में दर्शक बेशक कम थे लेकिन उनमें से अधिकतर ने खाने-पीने की चीजें खरीदी। मैंने भी लिया, बच्चे की जिद पर। पॉपकार्न खाते और पेप्सी पीते हुए मुंबई की मलिन बस्ती धरावी को देखना ठीक वैसे ही था जैसे धूप का काला चश्मा पहनकर जेठ की दोपहरी को निहारना…। आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न और पेप्सी-कोक पीते हुए देश की चिंता करना और देश बचाने के लिए वोट जरूर देना चाहिए यह संदेश ग्रहण करना कुछ वैसा ही लगा जैसे फिल्मी पर्दे का भाऊ कह रहा हो कि वोट उसे ही देना…।

Sep 18, 2008

ये कैसी श्रद्धा है हमारी


हर इंसान की भगवान के प्रति अपनी आस्था होती है। कोई अपने फायदे के लिए तो कोई मन की शांति के लिए भगवान को प्रसन्न करने में जुटा हुआ है। पर कभी सोचा है कि हम अंजाने में भगवान का आदर नहीं निरादर कर रहे है। मेरी मंशा किसी की भावना को ठेस पहुंचाने की नहीं है, बस मैं कुछ बातों के जरिए सब का ध्यान इस तरफ लाना चाहती हूं कि जिस भगवान की पूजा करते है उसे ही क्यों कूड़े का ढेर बना देते है। हम जिस भगवान की पूजा के लिए हर चीज को शुद्ध करते है। उसी का निरादर होते देख हम चुप्पी क्यों साध लेते है। अभी हमने कुछ दिन पहले गणेश महोत्सव मनाया है। दस दिन तक श्री गणेश की स्थापना के साथ उनकी दिन रात पूजा की। पूरी श्रद्धा के साथ उनका गुणगान किया। फिर बाद में उनको जल प्रवाह किया। इसी के साथ क्या हमारी आस्था, श्रद्धा भी जल में बह गई। जिस भगवान को हमने जल में प्रवाह कर दिया, क्या बाद में हमारी नजर गई उस भगवान की प्रतिमा का क्या हुआ। दरिया, नदियों के किनारे वह उनकी प्रतिभा किस हाल में है। शायद भगवान के भक्तों के पास इतना समय कहां कि देख पाए कि हमने किया क्या है। बस दस दिन पूजा की, काम पूरा कर लिया अब क्या देखना कि हमारी श्रद्धा कहा है। जिस भगवान के हम जोर शोर से घर पर लाए, उसी शान से विदा भी किया। आज नगरनिगम की सफाई की गाड़ियां उन प्रतिमा को उठा रही है तो कहीं हमारे पैरों के नीचे आ रही है। इतना ही नहीं खंडित भगवान की प्रतिमा हमारी आंखों के सामने है पर हम चुपचाप तमाशा देख रहे है। यह सब देख कर हमारी आस्था क्यों नहीं जागती। हमारी श्रद्धा कहां चली जाती है, जब हम खुद अपने भगवान का अपमान करते है

Sep 8, 2008

ए भाई जरा देख के चलो


सड़क पर बढ़ती गाड़ियों की संख्या। चारों तरफ भागती अंधा धुंध गाड़ियां। आए दिन सड़कों पर होते हादसे। फिर भी रफ्तार पर ब्रेक नहीं लगती। तेज रफ्तार के चक्कर में कई लोग रोज अपनी जान गंवाते है तो कई दूसरों को भी अपनी गलती की सजा दे देते है। रोजाना समाचार पत्रों के पन्नों पर सड़क हादसे में मौत के समाचार छपते है। हम उसे देखकर भी अनदेखा कर देते है। फिर निकल पड़ते है उसी रास्तें पर। थमती जिंदगी के आगे रफ्तार कम नहीं करते। रोजाना सड़कों पर बढ़ते हादसों से भी हम सीख नहीं ले रहे। सड़क कर निकलते समय हम अपने परिवार के बारे में अगर सोच ले तो शायद हमारी बढ़ती रफ्तार पर खुद-खुद कंट्रोल हो जाएगा। गाड़ी चलाते समय मोबाइल को सुनना, तेज रफ्तार से गाड़ी चलाना, तेज म्यूजिक, नशे का सेवन सब हमारी जान के दुश्मन है। इन सबके बारे में समझ कब आएगी। थोड़ी सी जल्दबाजी कितनी देर कर सकती है, इसका अंदाजा न तो कोई लगा रहा है और न ही किसी के पास इस बारे में सोचना का समय है। तेज रफ्तार के चलते नुक्सान ही होता है। कभी किसी से टक्कर तो कभी झग़ड़ा। कई बार तो जीवन लीला का अंत। अकसर हमारी छोटी से गलती, हमारे लिए जीवन भर की सजा भी बन सकती है। जरा देख कर चला जाए तो हम अपने साथ-साथ कई जिंदगियां बचा सकते है। कम से कम सड़क कर चलते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

Aug 31, 2008

खोखले होते हमारे रिश्ते

रोजाना समाचार पत्रों की सुर्खियां बन रही है कि अपने ने ही अपनों को मार डाला। कभी जमीन के लिए तो कभी पैसे के लिए। कुछ दिन पहले कि घटना कि एक लड़के के अपने मां बाप को वृद्ध आश्रम भेज दिया, क्यों वह बीमार रहते थे और उसके पास अपने बुजुर्ग माता पिता के लिए समय नहीं था । ऐसी हवा चल रही है जिससे लगता है हमारे रिश्ते खोखले होते जा रहे है, स्वार्थ का दीमक हमारे अपनेपन के अहसास को खत्म करता जा रहा है। मां-बाप बच्चों तो पालते है, लेकिन बच्चे क्या कर रहे है। उनको वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उनको वह बोझ लगने लगते है। पिछले दिनों एक वृद्ध आश्रम जाने का मौका मिला तो वहां के बुजुर्गों का दर्द सुन कर आंखो में नमी के साथ-साथ शर्मिंदगी थी कि हम अपनों को बोझ मानने लगे है। उन बुजुर्गो को जिन्होंने हमारी खुशी के लिए अपना जीवन का हर वो पल निछावर कर दिया, जिससे वह जीवन भर की खुशियां हासिल कर सकते थे। क्या आज हम आधुनिकता की दौ़ड़ में इतना व्यस्त हो चुके है कि हमारे अपने-अपनों के साथ के लिए तरस रहे है। लेकिन हम शायद यह भूल रहे है कि हम भी कभी उनकी उम्र में पहुंचेंगे, तब क्या अपनों की कमी नहीं महसूस होगी। स्वार्थ इतना हम पर हावी हो रहा है कि खुद के सिवा कुछ भी नहीं सोच पा रहे। खुद के लिए खुशियां तो ढूंढते है, लेकिन खुद के रिश्तों को कही दूर छोड़ते जा रहे है। विदेशी सांस्कृति का असर हम पर हो रहा है, वहां की तेज रफ्तार और व्यस्त जीवन का कलचर हमारे मनों पर ज्यादा छाप छोड़ रहा है। किसी दूसरे देश की संस्कृति को अपनाने में बुराई नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना गलत है।

Aug 17, 2008

बदला बदला है सब नजारा।

बदला बदला नजारा है। हमारे नेता जो कल तक खादी में नजर आते थे, आज स्टाइलिस सूट उनकी शान बन चुकी है। लग्जरी गाड़ी में शान की सवारी का अंदाज ही कुछ अलग हो चला है। हमारे देश के ज्यादातर नेता राजनीति की जानकारी रखे न रखे बस बैकराउंड सोलड होनी चाहिए। बरसों तरफ जुर्म की दुनिया रहने के बाद नेता की कुर्सी बहुत जल्दी हासिल हो जाती है। चाहे जीवन में कुछ अच्छा न किया हो लेकिन वोट के लिए अच्छाई का चोला पहन कर खुद को अच्छा साबित करने में जरा भी गुरेज नहीं होता। इन की पब्लिसटी देख कर हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी कुर्सी का चस्का लगने लगा है। गोबिंदा, स्मिति इरानी, हेमा मालिनी, धर्मेद्र सहित कितने अभिनेता राजनीतिक में कदम रख चुके है। अगर खुद को टिकट नहीं मिलता को पार्टी की चुनावी रैलियों का हिस्सा बन कर जनता के बीच आना उनको भा रहा है। भोली-भाली जनता भी उनकी एक्टिंग पर इतनी फिदा होती है, कि वह अपना नेता चुन कर इन को सत्ता में ले आती है। अभिनेता तो आखिर अभिनेता है रहते है, चुनावी मौसम में मंच पर चंद भावुक डायलाग सुना कर जनता के वोट पर अपना नाम दर्ज करवा लेते है। जीतने के बाद वापिस कभी अपने क्षेत्र की सुध लेना उनको भूल जाता है। जनता पूरे पांच वर्ष तक अपने चहेते नेता का इंतजार करती है, लेकिन मानसून के मैढक की तरह वह बिना चुनावी बारिश के कभी दिखाई नहीं देते। दूसरी तरफ अच्छा खासा क्रीमिनल रिकार्ड लेकर जुर्म की दुनिया में नाम कमाने वाले लोगों को भी चुनाव के दौरान टिकट आसानी से मिल रहे है। हमारी बड़े-बड़े दावे करनी वाली पार्टियां भी उनको टिकट देकर अपना सीट को कायम करना चाहती है। सत्ता में आने के बाद फिर वहीं मार-दाड़ शुरू होती है। कभी बहुमत बचाने के लिए जोड़-तोड़ तो कभी सत्ता में बैठे अनबन होने पर बहुमत वापिसी का दावा। फिर शुरू होता है कुर्सी बचाए रखने के लिए नोटतंत्र का दौर शुरू। ऐसे में कैसे कह सकते है कि हम जिन को चुन कर सत्ता में भेजते है उनके हाथों में हमारा वह देश सुरक्षित है, जिनके लिए भगतसिंह जैसे भारत मां के सपुतों ने जानें कुर्बान कर दी। चंद नोटों के अपना ईमान तक गिरवी रखने वाले हमारे नेता क्या हमारे देश को बचा पा रहे है। कभी देश में जात-पात के नाम पर मार-काट तो कभी धर्म के नाम पर प्रदर्शन। हमारे देश में सबकुछ इतना बदल गया है कि नेताओं के स्वार्थ में आम आदमी खुद ही दुश्मन बन बैठा है। चुनावी मौसम में तो जनता नेताओं के लिए भगवान बन जाती है, जो उनकी डुबती नैया को पार लगाएगी। नेता भी उन लोगों के बीच जाकर खुद को कभी बेटा तो कभी भाई के रूप में साबित करने में लग जाते है, तांकि उनकी भावनाओं को जगा कर खुद के लिए वोट पक्की कर ली जाए। लेकिन उन नेताओं के जीत के बाद उन लोगो के बीच आने के लिए दस बार सोचना पड़ता है।