बहुत दिनों बाद किसी थिएटर में फिल्म देखने गया। हॉल में जाते ही नजारा कुछ और था। करीब 250 लोगों के बैठने वाली जगह मुश्किल से बीस लोग बैठे थे। कुर्सी पर बैठते ही दिमाग में सवाल उठा कि बीस लोगों के लिए एक शो दिखाने का मतलब क्या है? बृहस्पतिवार का दिन होने की वजह से 100 रुपये का टिकट 75 रुपये में मिला था। लेकिन इसे और भी सस्ता किया जा सकता था। जाहिर सी बात है कि यदि टिकट सस्ता होता तो और अधिक लोग फिल्म देखने आते। ऐसे में थिएटर मालिक को फायदा ही होना था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया? मुझे अपने गांव की एक कहावत याद आई। सरि-सुर जाई, गोत न खाई। गोत के खाए, अकारथ जाई…॥ मतलब यह है कि कोई भी चीज बेकार चली जाए, लेकिन उसे अपने इस्तेमाल न कर पाएं, क्योंकि मना जाता है कि यदि अपने इस्तेमाल करेंगे तो वह बेकार चली जाएगी…।
जाहिर है कि यह कहावत मानव ईर्षा पर आधारित है। हालांकि इसे भी संस्कृति ही कहा जाएगा लेकिन समाज ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। ऐसे लोगों को हमेशा हेय दृष्टि से ही देखा गया। आज यदि वही कहावत कारोबार पर लागू हो रही है तो देखने में वह नव-उदारवाद से उपजी अपसंस्कृति लगती है। लेकिन इसके पीछे पूरा अर्थशास्त्र काम कर रहा है। हालांकि भावना ईर्षा वाली ही है कि वंचितों तक मनोरंजन को नहीं पहुंचने देना है। लेकिन मामला मुनाफे से जुड़ा है। यदि आम आदमी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने लगे तो समाज का प्रभु वर्ग नाराज हो जाएगा। मल्टीप्लेक्स में गंदगी फैल जाएगी। फूहड़ता हावी हो जाएगी। लोग हॉल में चिल्लाएंगे और सीटियां भी बजाएंगे जो प्रभुवर्ग को मंजूर नहीं होगा। यदि हाल में ऐसा होने लगा तो प्रभु वर्ग वहां नहीं जाएगा। जाहिर है कि मल्टी प्लेक्स के मालिक प्रभु वर्ग को नाराज नहीं करना चाहते। प्रभु वर्ग ही उनका एटीएम है। यही वर्ग है जो आज की कई फिल्मों की कमाई करोड़ों में पहुंचा देता है। आम वर्ग के लिए खास वर्ग को कौन नाराज करना चाहेगा?
जो फिल्म मैं देख रहा था वह थी भूतनाथ रिटर्न्स। नाम से लग रहा था कि फिल्म बच्चों के लिए बनाई गई होगी। यही वजह थी बेटे ने जिद की उसे देखने के लिए लेकिन वह थिएटर में जाकर निराश हुआ। इसमें उसके मनोरंजन के लिए कुछ नहीं था। मुंबई की मलिन बस्ती धरावी के गरीब और गंदगी भरी जगहों में वह अपने लिए मनोरंजन तलाश रहा था। उस मासूम को कहां मालूम की पर्दे पर दिखने वाली गरीबी और गंदगी आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए व्यक्ति को देशभक्त बना देती है। राष्ट्रभक्ति के जोश में वह पॉपकार्न को कई बार जोर से चबाता है और देश की दुर्दशा पर उसके आंखों से निकले आंसू पेप्सी और कोक के गिलास में भी गिर जाते हैं।
फिल्म में चरित्र बेशक भूत का है लेकिन उसकी थीम लोकतंत्र में वोट की अहमियत बताने की है। फिल्म का एक ही संदेश है कि हर आदमी को वोट जरूर देना चाहिए। वोट देने से आदमी की समस्याओं का निदान हो जाएगा। यह फिल्मी तरीके से बताया गया है। अंत में फिल्म में भावुकता डाली गई है। अखरोट को भाऊ का आदमी घायल कर देता है। वह आईसीयू में है तो भूतनाथ उसकी जिंदगी मांगने भूतलोक चला जाता है। वहां से उसे जिंदगी इस शर्त पर मिलती है कि भूतनाथ चुनाव जीतेगा तो अखरोट बच जाएगा। फिल्म है तो लोग वोट भी भूतनाथ को देते हैं। भाऊ हारता है और अखरोट को जीवन मिल जाता है। पर्दे का नायक जीत जाता है। लोगों के वोट से उसकी जिंदगी बच जाती है लेकिन असल जिंदगी में ऐसा होता है क्या? फिल्म देखने के बाद यह नहीं लगता कि यदि कोई वोट दे तो उसकी जिंदगी में बदलाव कैसे आएगा? एक आम आदमी की समस्या का निदान कैसे हो जाएगा? यदि वोट देने से ही किसी समस्या का हल हो जाता तो जो लोग वोट देते हैं उनके पास कोई समस्या होती ही नहीं? मतदान यदि समस्याओं के निदान का एक कारक मात्र भी होता तो लोग दौड़ते हुए वोट देने जाते लेकिन यह तो घर में बैठकर चर्चा करने और सिनेमा हाल में पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए चिंतन और चर्चा का विषय बनकर रह गया है।
फिल्म के मध्यांतर में खाने-पीने की चीजें बेचने वाले आ गए। पिज्जा, बर्गर, मोमो, पेस्टी, पॉपकार्न और पेप्सी-कोका आदि। खाने की कोई भी वस्तु 80 रुपये से कम की नहीं थी। किसी सामान्य जगह 12 रुपये में मिलने वाला पेय पदार्थ यहां 25 रुपये में मिल रहा था। थिएटर में दर्शक बेशक कम थे लेकिन उनमें से अधिकतर ने खाने-पीने की चीजें खरीदी। मैंने भी लिया, बच्चे की जिद पर। पॉपकार्न खाते और पेप्सी पीते हुए मुंबई की मलिन बस्ती धरावी को देखना ठीक वैसे ही था जैसे धूप का काला चश्मा पहनकर जेठ की दोपहरी को निहारना…। आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न और पेप्सी-कोक पीते हुए देश की चिंता करना और देश बचाने के लिए वोट जरूर देना चाहिए यह संदेश ग्रहण करना कुछ वैसा ही लगा जैसे फिल्मी पर्दे का भाऊ कह रहा हो कि वोट उसे ही देना…।
जाहिर है कि यह कहावत मानव ईर्षा पर आधारित है। हालांकि इसे भी संस्कृति ही कहा जाएगा लेकिन समाज ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। ऐसे लोगों को हमेशा हेय दृष्टि से ही देखा गया। आज यदि वही कहावत कारोबार पर लागू हो रही है तो देखने में वह नव-उदारवाद से उपजी अपसंस्कृति लगती है। लेकिन इसके पीछे पूरा अर्थशास्त्र काम कर रहा है। हालांकि भावना ईर्षा वाली ही है कि वंचितों तक मनोरंजन को नहीं पहुंचने देना है। लेकिन मामला मुनाफे से जुड़ा है। यदि आम आदमी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने लगे तो समाज का प्रभु वर्ग नाराज हो जाएगा। मल्टीप्लेक्स में गंदगी फैल जाएगी। फूहड़ता हावी हो जाएगी। लोग हॉल में चिल्लाएंगे और सीटियां भी बजाएंगे जो प्रभुवर्ग को मंजूर नहीं होगा। यदि हाल में ऐसा होने लगा तो प्रभु वर्ग वहां नहीं जाएगा। जाहिर है कि मल्टी प्लेक्स के मालिक प्रभु वर्ग को नाराज नहीं करना चाहते। प्रभु वर्ग ही उनका एटीएम है। यही वर्ग है जो आज की कई फिल्मों की कमाई करोड़ों में पहुंचा देता है। आम वर्ग के लिए खास वर्ग को कौन नाराज करना चाहेगा?
जो फिल्म मैं देख रहा था वह थी भूतनाथ रिटर्न्स। नाम से लग रहा था कि फिल्म बच्चों के लिए बनाई गई होगी। यही वजह थी बेटे ने जिद की उसे देखने के लिए लेकिन वह थिएटर में जाकर निराश हुआ। इसमें उसके मनोरंजन के लिए कुछ नहीं था। मुंबई की मलिन बस्ती धरावी के गरीब और गंदगी भरी जगहों में वह अपने लिए मनोरंजन तलाश रहा था। उस मासूम को कहां मालूम की पर्दे पर दिखने वाली गरीबी और गंदगी आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए व्यक्ति को देशभक्त बना देती है। राष्ट्रभक्ति के जोश में वह पॉपकार्न को कई बार जोर से चबाता है और देश की दुर्दशा पर उसके आंखों से निकले आंसू पेप्सी और कोक के गिलास में भी गिर जाते हैं।
फिल्म में चरित्र बेशक भूत का है लेकिन उसकी थीम लोकतंत्र में वोट की अहमियत बताने की है। फिल्म का एक ही संदेश है कि हर आदमी को वोट जरूर देना चाहिए। वोट देने से आदमी की समस्याओं का निदान हो जाएगा। यह फिल्मी तरीके से बताया गया है। अंत में फिल्म में भावुकता डाली गई है। अखरोट को भाऊ का आदमी घायल कर देता है। वह आईसीयू में है तो भूतनाथ उसकी जिंदगी मांगने भूतलोक चला जाता है। वहां से उसे जिंदगी इस शर्त पर मिलती है कि भूतनाथ चुनाव जीतेगा तो अखरोट बच जाएगा। फिल्म है तो लोग वोट भी भूतनाथ को देते हैं। भाऊ हारता है और अखरोट को जीवन मिल जाता है। पर्दे का नायक जीत जाता है। लोगों के वोट से उसकी जिंदगी बच जाती है लेकिन असल जिंदगी में ऐसा होता है क्या? फिल्म देखने के बाद यह नहीं लगता कि यदि कोई वोट दे तो उसकी जिंदगी में बदलाव कैसे आएगा? एक आम आदमी की समस्या का निदान कैसे हो जाएगा? यदि वोट देने से ही किसी समस्या का हल हो जाता तो जो लोग वोट देते हैं उनके पास कोई समस्या होती ही नहीं? मतदान यदि समस्याओं के निदान का एक कारक मात्र भी होता तो लोग दौड़ते हुए वोट देने जाते लेकिन यह तो घर में बैठकर चर्चा करने और सिनेमा हाल में पॉपकार्न चबाते हुए और पेप्सी-कोक पीते हुए चिंतन और चर्चा का विषय बनकर रह गया है।
फिल्म के मध्यांतर में खाने-पीने की चीजें बेचने वाले आ गए। पिज्जा, बर्गर, मोमो, पेस्टी, पॉपकार्न और पेप्सी-कोका आदि। खाने की कोई भी वस्तु 80 रुपये से कम की नहीं थी। किसी सामान्य जगह 12 रुपये में मिलने वाला पेय पदार्थ यहां 25 रुपये में मिल रहा था। थिएटर में दर्शक बेशक कम थे लेकिन उनमें से अधिकतर ने खाने-पीने की चीजें खरीदी। मैंने भी लिया, बच्चे की जिद पर। पॉपकार्न खाते और पेप्सी पीते हुए मुंबई की मलिन बस्ती धरावी को देखना ठीक वैसे ही था जैसे धूप का काला चश्मा पहनकर जेठ की दोपहरी को निहारना…। आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर पॉपकार्न और पेप्सी-कोक पीते हुए देश की चिंता करना और देश बचाने के लिए वोट जरूर देना चाहिए यह संदेश ग्रहण करना कुछ वैसा ही लगा जैसे फिल्मी पर्दे का भाऊ कह रहा हो कि वोट उसे ही देना…।
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