Aug 31, 2008

खोखले होते हमारे रिश्ते

रोजाना समाचार पत्रों की सुर्खियां बन रही है कि अपने ने ही अपनों को मार डाला। कभी जमीन के लिए तो कभी पैसे के लिए। कुछ दिन पहले कि घटना कि एक लड़के के अपने मां बाप को वृद्ध आश्रम भेज दिया, क्यों वह बीमार रहते थे और उसके पास अपने बुजुर्ग माता पिता के लिए समय नहीं था । ऐसी हवा चल रही है जिससे लगता है हमारे रिश्ते खोखले होते जा रहे है, स्वार्थ का दीमक हमारे अपनेपन के अहसास को खत्म करता जा रहा है। मां-बाप बच्चों तो पालते है, लेकिन बच्चे क्या कर रहे है। उनको वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उनको वह बोझ लगने लगते है। पिछले दिनों एक वृद्ध आश्रम जाने का मौका मिला तो वहां के बुजुर्गों का दर्द सुन कर आंखो में नमी के साथ-साथ शर्मिंदगी थी कि हम अपनों को बोझ मानने लगे है। उन बुजुर्गो को जिन्होंने हमारी खुशी के लिए अपना जीवन का हर वो पल निछावर कर दिया, जिससे वह जीवन भर की खुशियां हासिल कर सकते थे। क्या आज हम आधुनिकता की दौ़ड़ में इतना व्यस्त हो चुके है कि हमारे अपने-अपनों के साथ के लिए तरस रहे है। लेकिन हम शायद यह भूल रहे है कि हम भी कभी उनकी उम्र में पहुंचेंगे, तब क्या अपनों की कमी नहीं महसूस होगी। स्वार्थ इतना हम पर हावी हो रहा है कि खुद के सिवा कुछ भी नहीं सोच पा रहे। खुद के लिए खुशियां तो ढूंढते है, लेकिन खुद के रिश्तों को कही दूर छोड़ते जा रहे है। विदेशी सांस्कृति का असर हम पर हो रहा है, वहां की तेज रफ्तार और व्यस्त जीवन का कलचर हमारे मनों पर ज्यादा छाप छोड़ रहा है। किसी दूसरे देश की संस्कृति को अपनाने में बुराई नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना गलत है।

Aug 17, 2008

बदला बदला है सब नजारा।

बदला बदला नजारा है। हमारे नेता जो कल तक खादी में नजर आते थे, आज स्टाइलिस सूट उनकी शान बन चुकी है। लग्जरी गाड़ी में शान की सवारी का अंदाज ही कुछ अलग हो चला है। हमारे देश के ज्यादातर नेता राजनीति की जानकारी रखे न रखे बस बैकराउंड सोलड होनी चाहिए। बरसों तरफ जुर्म की दुनिया रहने के बाद नेता की कुर्सी बहुत जल्दी हासिल हो जाती है। चाहे जीवन में कुछ अच्छा न किया हो लेकिन वोट के लिए अच्छाई का चोला पहन कर खुद को अच्छा साबित करने में जरा भी गुरेज नहीं होता। इन की पब्लिसटी देख कर हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी कुर्सी का चस्का लगने लगा है। गोबिंदा, स्मिति इरानी, हेमा मालिनी, धर्मेद्र सहित कितने अभिनेता राजनीतिक में कदम रख चुके है। अगर खुद को टिकट नहीं मिलता को पार्टी की चुनावी रैलियों का हिस्सा बन कर जनता के बीच आना उनको भा रहा है। भोली-भाली जनता भी उनकी एक्टिंग पर इतनी फिदा होती है, कि वह अपना नेता चुन कर इन को सत्ता में ले आती है। अभिनेता तो आखिर अभिनेता है रहते है, चुनावी मौसम में मंच पर चंद भावुक डायलाग सुना कर जनता के वोट पर अपना नाम दर्ज करवा लेते है। जीतने के बाद वापिस कभी अपने क्षेत्र की सुध लेना उनको भूल जाता है। जनता पूरे पांच वर्ष तक अपने चहेते नेता का इंतजार करती है, लेकिन मानसून के मैढक की तरह वह बिना चुनावी बारिश के कभी दिखाई नहीं देते। दूसरी तरफ अच्छा खासा क्रीमिनल रिकार्ड लेकर जुर्म की दुनिया में नाम कमाने वाले लोगों को भी चुनाव के दौरान टिकट आसानी से मिल रहे है। हमारी बड़े-बड़े दावे करनी वाली पार्टियां भी उनको टिकट देकर अपना सीट को कायम करना चाहती है। सत्ता में आने के बाद फिर वहीं मार-दाड़ शुरू होती है। कभी बहुमत बचाने के लिए जोड़-तोड़ तो कभी सत्ता में बैठे अनबन होने पर बहुमत वापिसी का दावा। फिर शुरू होता है कुर्सी बचाए रखने के लिए नोटतंत्र का दौर शुरू। ऐसे में कैसे कह सकते है कि हम जिन को चुन कर सत्ता में भेजते है उनके हाथों में हमारा वह देश सुरक्षित है, जिनके लिए भगतसिंह जैसे भारत मां के सपुतों ने जानें कुर्बान कर दी। चंद नोटों के अपना ईमान तक गिरवी रखने वाले हमारे नेता क्या हमारे देश को बचा पा रहे है। कभी देश में जात-पात के नाम पर मार-काट तो कभी धर्म के नाम पर प्रदर्शन। हमारे देश में सबकुछ इतना बदल गया है कि नेताओं के स्वार्थ में आम आदमी खुद ही दुश्मन बन बैठा है। चुनावी मौसम में तो जनता नेताओं के लिए भगवान बन जाती है, जो उनकी डुबती नैया को पार लगाएगी। नेता भी उन लोगों के बीच जाकर खुद को कभी बेटा तो कभी भाई के रूप में साबित करने में लग जाते है, तांकि उनकी भावनाओं को जगा कर खुद के लिए वोट पक्की कर ली जाए। लेकिन उन नेताओं के जीत के बाद उन लोगो के बीच आने के लिए दस बार सोचना पड़ता है।

Aug 16, 2008

आज़ादी का जश्न

आज़ादी का ६१वां जश्न मना कर कितना मान महसूस कर रहे है, वह आजादी जो हमारे शहीदों ने अपनी जान कुर्बान कर अंग्रेजों को खदेड़ कर हमें दी थी। पर आज हम खुद अपनी भारत मां की बेड़ियां तो बांध रहे है।आजादी का परवानो ने अपनी दुल्हन के लिए शहादत पाई थी, आज वह भी अपने आजाद भारत को देख कर रौते होंगे कि क्या इस दिन के लिए आजाद हुआ था भारत। जहां पर आज भाई-भाई का दुश्मन बन चुका है। धर्म के नाम पर एक दूसरे का खून बहाया जा रहा है। कभी मंदिर में बम फट रहे तो कभी मस्जिद में। कभी बेटी की आबरू लूट रही है तो कभी मां के सीने पर खुद बेटे ही वार कर रहे है। आज हर तरफ कोहराम मचा है। चंद नेताओं ने अपनी खुदगर्जी के लिए हमारी मां के टूकड़े किए थे, आज उस जैसे कितने ही नेता इस कतार में है कि भारत मां के कुछ अंगों को फिर से अलग कर दिया जाए। मां के सपूत कितने होनहार है कि वह उसके इरादों को आज भी नहीं समझ रहे बस कतपुतली बन नाच रहे है। आज चाहे हिंदू है या मुस्लिन, ईसाई है या फिर सिख। हर किसी को खुद से सिवा कोई दूसरा नजर नहीं आ रहा। क्या आज सभी भारत मां की संतान नहीं ? १९४७ में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। उससे समय दोनों तरफ खून की नदियां बह रही थी। कोई भी कम नहीं रहना चाहता था। बहू बेटियों का आबरू सरेआम लूट रही थी। लेकिन आज उस माहौल में कितना बदलाव है। क्या आज भी बहु-बेटियां सुरक्षित है। पहले दूसरे से उनकी रक्षा करनी पड़ती थी, आज घर ही शैतानों की कमी नही है। जाति और धर्म के नाम पर लगाई आग इतनी तेजी से फैल रही है कि लगता है कि हमारे देश को निगल लेगी। आज भारत मां को हम ने इतनी बेडि़यों में जकड़ दिया है कि उसका सांस लेना मुश्किल हो गया है। हम जिन नेताओं के हाथ अपने देश की बागडोर सौपते है, उनको भी सिवा कुर्सी के कुछ दिखाई नहीं देता। बस अपनी कुर्सी बचाने की चिंता रहती है, जनता और देश गया बाड़ में। लोकतंत्र और प्रजातंत्र की दुहाई देने नेता आज नया तंत्र ले आए है नोटतंत्र। कुर्सी बचाने के लिए नोटों की बारिश। लोगों के घर चुल्हा जले न जले हमारे नेता हर छोटी छोटी बातों पर जश्न मनाते नजर आएंगे। मंच पर लंबे लंबे भाषण देकर जनता को मुर्ख बनाना तो कोई इन से सीखे। पांच साल के बाद जनता की याद आती है। नोटों और शराब की बोतलों के साथ चुनाव में खुद को साबित कर वह कुर्सी तो हासिल कर लेते है, लेकिन फिर उसी जनता को पहचानने से गुरेज करने लगते है। ऐसे में कैसे आजादी को हम बचा पाएंगे, जहां की जनता खुद को गुलाम बना रही है, वह अपनी आजादी की रक्षा कैसे कर पाएगी।

Aug 10, 2008

अब सब बोले बम बम भोले

अब तक राम नाम से लोगों के बीच हिंदुत्व का राग अलापने वाली बीजेपी अब बम-बम भोले की शरण में आ गई है। सावन माह को महादेव को खुश करने के लिए सभी मंदिरों में पूजा करते है तो ऐसे में बीजेपी कैसे पीछे रहे। इतना जरूर है कि बीजेपी मंदिर के साथ-साथ मंच से भी बम-बम भोले को खुश करने के प्रयास करने में सबसे आगे निकल चुकी है। लोगों के बीच अब तक जो नेता राम के नाम पर वोट मांगते आए है उनका अंदाज अब भी वही होगा, जब राम नाम के स्थान पर अब वह महादेव बम-बम भोले बोलते नजर आएंगे। बीजेपी का हर नेता बम-बम भोले की फौज बन कर लोगों के मनों में दस्तक देने की कोशिश करन में जुट गया है। आज दिल्ली में बीजेपी की रैली के दौरान मंच महादेव की पूजा करने के बाद जब अडवाणी सहित कई बड़े-बड़े नेता जब बम-बम भोले बोले तो लगा कि बीजेपी के सुर नए है। जम्मू की आग की लपटों ने बीजेपी के नेताओं को राम नाम भुला कर बम-बम भोले का जाप सीखा दिया है। मंच पर अडवाणी भोले की सेना के सिपाही बन कर गरजे की जमीन लेकर रहेंगे, जैसे जो भी हो। बीजेपी का बम-बम भोले प्रेम देखकर वामपंथी दल भी अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतर गए है। उन्होंने भी बम-बम भोले के नाम पर केंद्र और कांग्रेंस सरकार को दोषी ठहराना शुरू कर दिया है। अब देखना है कि बम-बम भोले किस पर मेहरबान होंगे। जम्मू में संघर्ष समिति की बैठक बेनतीजा होने का बाद बीजेपी ने भी अपने सुर थोड़े तीखे कर लिए है, क्यों इस समय हिंदुत्व के नाम पर लोगों को अपने साथ जोड़ने का मौका है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि वापस लेने से उठे विवाद से लोकसभा चुनाव में बीजेपी को के हाथ ऐसा बान लगा है जो हिंदुत्व के नाम पर वोट बटोरना में काफी मदद कर सकता है। फिर ऐसे में राम की शरण से निकल बीजेपी महादेव की शरण में आने से कैसे रूक सकती थी। भाजपा ने महादेव के नाम को भुनाने के लिए संघर्ष को जिला स्तर पर शुरू करने को भी हरी झंडी दे दी है। बस देखना यह है कि आने वाले दिनों में बीजेपी और वामपंथी दलों के बीच कौन महादेव को खुश कर पाएगा और बम-बम भोले के जैकारों में किस की आवाज बुलंद रहेगी।

Aug 3, 2008

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो..


अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो.. इस गीत के बोल एक बेटी की व्यथा को खुद व खुद बयां कर रहे है। कहते है समाज में बेटी के लिए सोच बदली तो है लेकिन कितनी बदलती है यह बहस का मुद्दा है। बेटी के मन की बात शब्दों का रूप ले भी ले तब भी समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आज भी बेटी को जन्म से पहले ही मारने का सिलसिला जारी है। कितने सेमिनार, कांफ्रेस और कैंप लगा कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, लेकिन घंटे आधे घंटे के भाषण में लोगों की सोच पर ज्यादा फर्क नहीं पड रहा। चाहे सरकार ने कानून बना दिए है, लेकिन डाक्टर खुद चंद रूपये के लिए पाप के भागीदार बन रहे है। क्या बेटी सच में मां बाप पर इतना बोझ बनती जा रही है कि उसको जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है। कितने गीतकारों ने अपनी कलम के माध्मम से अजन्मी बेटी के मन की बात को उजागर किया, कितने गायकों ने उसे अपनी सुरीली आवाज में लोगों तक पहुंचाया। फिर भी लोग बेटी को मारने के लिए वह पत्थर के दिल और खून से रंगे डाक्टर के हाथ कंपकपाते नहीं है। आज हर तरफ बेटियों ने अपना रूतबा कायम किया है पर पुरूष प्रधान समाज को यह बात स्विकार करने में अभी वक्त लगेगा। मेरे इन शब्दों से लोगों को बुरा लग सकता है, पर सच्चाई यहीं है कि बेटी का खुद की समाज में पहचान बनाना जल्दी हजम नहीं हो पा रहा। बेटे को तो सभी हक खुद ब खुद दे दिए जाते है, पर बेटी के लिए उसका नजरिया आज भी सदियों पुराना है। बेटा कुछ भी करें सब माफ, बेटी जरा सी गलती कर बैठे तो खान-दान की दुहाई। एक तरह तो कहते है कि बेटे से खानदान का नाम रोशन करता है, फिर सिर्फ बेटियों पर पाबंदियां क्यो? बेटी मायके में है तो हर बात के लिए पिता या भाई से इजाजत जरूरी। बचपन से एक बात परिवार के सदस्य के जुबान पर होती है, जो करना है अपने घर जाकर करना। क्या कहेंगे वो यहीं सिखाया मां-बाप ने। बेटी अरमानों के साथ ससुराल में कदम रखती है, वहां पर भी उसके लिए अपना घर उसे कहीं नजर नहीं आता। अपनी मर्जी से कुछ कर लिया तो वहीं बात अपने घर क्या ऐसा करती थी। पराए घर की है न इसलिए कुछ पता नहीं इसको। फिर सवाल वहीं कि अपने के बीच रह कर बेटी का अपना घर कौन सा है। चारों तरफ उसके अपने है, पर अपनों की भीड़ में वह खुद को पराया महसूस करती है। आखिर कब बदलेगी बेटी के लिए समाज की धारना। आखिर कब मिलेगा उसे अपने घर का आसरा। मेरी बातें लोगों को पसंद नहीं आएगी, लेकिन क्या कोई बता सकता है बेटी का अपना घर कौन सा है। दोनों परिवार अपने है बेटी के लेकिन बेटी किसी की अपनी क्यों नहीं?

फ्रेंडशिप डे




तीन अगस्त को दोस्ती का दिन है। अंग्रेजी में बोले तो फ्रेंडशिप डे। मतलब दोस्तों को अहसास करवाओं कि दोस्ती अभी भी जिंदा है। यह कहां जाए कि अगर फ्रेंडशिप डे न हो तो दोस्ती का अहसास करवाना मुश्किल हो जाएं। कितनी तेजी से हम पश्चिमी सभ्यता में खुद को ढालते जा रहे है, कभी फ्रेंडशिप डे मना रहे है तो कभी चाकलेट डे। अच्छा है बच्चों को दोस्ती का पाठ पढ़ाया जा रहा है।, लेकिन उसमें भी अंग्रेजी तड़का लगा कर। क्या हम दोस्ती को सुदामा श्रीकृष्ण के नाम से नहीं जान सकते। वह निस्वार्थ दोस्ती आजकल नहीं देखने को मिलती। आज कल के दौर में वैसे अच्छे दोस्त मिलना किस्मत की बात हो गई है, पर फिर भी अपनी कोशिश जारी रखनी चाहिए। जीवन में दोस्तों की लिस्ट लंबी करने के स्थान पर चंद दोस्त बनाने ज्यादा बेहतर है। दोस्त तो बहुत मिल जाएंगे पर दोस्ती का मतलब समझने वाले बहुत कम है संसार में। पर आज भी चंद लोग ऐसे है जो दोस्ती को निभाने जानते है। वैसे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी, आप खुद समझदार है।


---------दोस्ती-------
जीवन में दोस्त बनों ऐसे, नाज करें तुम पर,
वक्त न आए ऐसा कभी कोई हंसे हम पर।
रास्ते बहुत है पथरीले इस राह के प्यारे,
डर मत हम भी राह पर साथ है तुम्हारे।
लंबी डगर है साथी मिलेंगे बहुत तुमको,
पर भीड़ में भी तुम पहचान लेना हमको।
दिखाई न देंगे कभी तो छोड़ ना देना हाथ,
मर कर भी हरदम कदम चलेंगे तुम्हारे साथ।


Aug 1, 2008

मेरा नाम छाप देना जनाब

आए जनाब, पानी पी ली लीजिए। वैसे कौन से समचार पत्र से है आप। मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा, जब से इश्मीत की मौत के बारे में सुना है, दिल बैठा जा रहा है। मेरा नाम जरूर डाल दीजिएगा खबर में, मैं जहां ए पास वाला ही घर है मेरा। क्या बताऊ इश्मीत को मैने अपनी गोद में खेलाया है, बड़ा दुख है। पानी नहीं उतर रहा मेरे गले से। कौन सा पेपर बताया आप ने मेरे नाम के साथ इतना जरूर लिख देना कि मै फलाने बैंक में अफसर हूं। हां तो जनाव आप नहीं लिया आप ने।वैसे कब आएगी खबर कल तो पक्का न। इश्मीत बहुत प्यारा बच्चा था। इतने में दूसरी तरफ एक सज्जन की अवाज कानों में टकराती है कि वो फलाना न्यूजपेपर संभाल लेना, हां वो दूसरे पन्ने की तीसरी फोटों में मैं दिखाई दे रहा हूं। हां-हां आज भी काफी चैनल और अख्बारों वाले है यहां, इसलिए मैं अंदर ही हूं। कल भी मेरी फोटो आएगी अख्बारों में। सच में ऐसे लोगों की बातों से लगा ही नहीं यह किसी सम्मेलन का हिस्सा बनने आए हैं या फिर उसके लिए शोक जताने, जो अब इस दुनिया में नहीं है। अंदर जो सज्जन सब से ज्यादा दुखी दिखाई दे रहे थे, जिन की आंखों में (मगरमछ के आंसू कहूं तो कुछ गलत नहीं होगा) मोटे मोटे गिर रहे थे., वह बस इस लिए वहां है कि कल अख्बारों और चैनलों में उनकी तस्वीरें चमकेंगी। समझ नहीं आता कि क्या लोग जिस घर का चिराग बुझ गया उसको दिलासा दे रहे है या फिर लाश पर भी रोटियां सेक रहे है। लगता है कि इन के लिए किसी का होना न होना कोई मायने नही रखता , बस उन को मौका चाहिए कि मीडिया में खुद को कैसे चमकाया जाए। आज इश्मीत की मौत पर बड़े-बड़े प्रेसनोट बना कर श्रद्धाजंलि भेंट करने का मौका कोई नहीं गंवाना चाहता। श्रद्धाजंलि की एक लाइन लिख कर कम से कम सौ व्यक्तियों के नाम उसपर अंकित कर समाचार पत्रों के दफ्तरों में पहुंचाए जा रहे है। इन नाम छपावे के फोबिया के शिकार लोग चाहे उसके घर शोक जताने गए हो या न।