Aug 16, 2008

आज़ादी का जश्न

आज़ादी का ६१वां जश्न मना कर कितना मान महसूस कर रहे है, वह आजादी जो हमारे शहीदों ने अपनी जान कुर्बान कर अंग्रेजों को खदेड़ कर हमें दी थी। पर आज हम खुद अपनी भारत मां की बेड़ियां तो बांध रहे है।आजादी का परवानो ने अपनी दुल्हन के लिए शहादत पाई थी, आज वह भी अपने आजाद भारत को देख कर रौते होंगे कि क्या इस दिन के लिए आजाद हुआ था भारत। जहां पर आज भाई-भाई का दुश्मन बन चुका है। धर्म के नाम पर एक दूसरे का खून बहाया जा रहा है। कभी मंदिर में बम फट रहे तो कभी मस्जिद में। कभी बेटी की आबरू लूट रही है तो कभी मां के सीने पर खुद बेटे ही वार कर रहे है। आज हर तरफ कोहराम मचा है। चंद नेताओं ने अपनी खुदगर्जी के लिए हमारी मां के टूकड़े किए थे, आज उस जैसे कितने ही नेता इस कतार में है कि भारत मां के कुछ अंगों को फिर से अलग कर दिया जाए। मां के सपूत कितने होनहार है कि वह उसके इरादों को आज भी नहीं समझ रहे बस कतपुतली बन नाच रहे है। आज चाहे हिंदू है या मुस्लिन, ईसाई है या फिर सिख। हर किसी को खुद से सिवा कोई दूसरा नजर नहीं आ रहा। क्या आज सभी भारत मां की संतान नहीं ? १९४७ में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। उससे समय दोनों तरफ खून की नदियां बह रही थी। कोई भी कम नहीं रहना चाहता था। बहू बेटियों का आबरू सरेआम लूट रही थी। लेकिन आज उस माहौल में कितना बदलाव है। क्या आज भी बहु-बेटियां सुरक्षित है। पहले दूसरे से उनकी रक्षा करनी पड़ती थी, आज घर ही शैतानों की कमी नही है। जाति और धर्म के नाम पर लगाई आग इतनी तेजी से फैल रही है कि लगता है कि हमारे देश को निगल लेगी। आज भारत मां को हम ने इतनी बेडि़यों में जकड़ दिया है कि उसका सांस लेना मुश्किल हो गया है। हम जिन नेताओं के हाथ अपने देश की बागडोर सौपते है, उनको भी सिवा कुर्सी के कुछ दिखाई नहीं देता। बस अपनी कुर्सी बचाने की चिंता रहती है, जनता और देश गया बाड़ में। लोकतंत्र और प्रजातंत्र की दुहाई देने नेता आज नया तंत्र ले आए है नोटतंत्र। कुर्सी बचाने के लिए नोटों की बारिश। लोगों के घर चुल्हा जले न जले हमारे नेता हर छोटी छोटी बातों पर जश्न मनाते नजर आएंगे। मंच पर लंबे लंबे भाषण देकर जनता को मुर्ख बनाना तो कोई इन से सीखे। पांच साल के बाद जनता की याद आती है। नोटों और शराब की बोतलों के साथ चुनाव में खुद को साबित कर वह कुर्सी तो हासिल कर लेते है, लेकिन फिर उसी जनता को पहचानने से गुरेज करने लगते है। ऐसे में कैसे आजादी को हम बचा पाएंगे, जहां की जनता खुद को गुलाम बना रही है, वह अपनी आजादी की रक्षा कैसे कर पाएगी।

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